प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मध्यपाषाण काल की संस्कृति का महत्व पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक है? विस्तृत विवेचन कीजिए।
अथवा
मध्यपाषाणकालीन संस्कृति का महत्व बताइये।
उत्तर-
मध्यपाषाण काल पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल दोनों संस्कृतियों की विशेषताओं को सहेजे हुए है। मध्यपाषाण काल को पुराविदों ने अनु-पुरापाषाण काल, आद्य-नव पाषाण काल एवं मध्यपाषाण काल संक्रमण काल आदि विविध नामों से नामकरण किया। लेकिन यह काल मध्यपाषाण काल से अधिक प्रचलित हुआ। इस काल में मिलने वाले उपकरण अत्यन्त लघु हैं। इन उपकरणों की लम्बाई लगभग 1-5 सेमी. माइक्रोलिथ होती है। इसलिए इन उपकरणों को लघुपाषाण उपकरण कंहा गया।
मध्यपाषाण काल का महत्व पूर्ववर्ती संस्कृतियों से अधिक है। मानव विकास के साथ ही यह धरती के विकास के इतिहास में भी एक नयी स्थिति का परिचायक है। उच्च पुरापाषाण काल तक अतिशीतल एवं अति वर्षा की स्थिति थी। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी के अधिकांश भू-क्षेत्र दलदली या जल प्लावित थे अथवा हिम आच्छादित थे। जिसके कारण जलवायु मानव एवं वनस्पतियों के विकास के अनुकूल नहीं थी। लेकिन उच्चपुरापाषाण काल के अन्तिम चरण तक लगभग सभी भू-भागों में समशीतोष्ण जलवायु का प्रारम्भ हुआ। हिमाच्छादित क्षेत्रों में बर्फ की चादरें उठने लगी और दलदली मैदान सूखने लगे। इस युग को 'सर्वनूतन युग' कहा गया। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप पृथ्वी पर अनेक बदलाव हुए। जहाँ पहले बर्फ थी वहाँ अब घास के मैदान बन गये, अति वर्षा वाले भू-क्षेत्रों में घने जंगलों में परिवर्तित होने लगे। जंगली घासों के उदय ने मानव को संभवतः अन्न उत्पादन के लिए प्रेरित किया होगा। अर्थात् इस काल को आधुनिक अनाजों का पूर्ववर्ती माना जा सकता है। इस जलवायु परिवर्तन के कारण धरती पर विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं को भी प्रभावित किया। अपेक्षाकृत गर्म जलवायु के कारण विशालकाय मैमन एवं घने बालों वाले गैंडे धीरे-धीरे लुप्तप्राय होने लगे। और नवीन जीव-जन्तुओं का आर्विभाव इस धरातल पर हुआ, जैसे, बकरी, छोटे भेंड, हिरण आदि। इन परिवर्तनों से मानव अछूता नहीं रहा। क्योंकि कोई भी जीव विशेष कर मानव वातावरण से अलग नहीं रह सकता। उनका जीवन यापन एवं खानपान उन परिस्थितियों से प्रभावित होता है, जिनके बीच रहकर वह अपना जीवन यापन करता है। परिवर्तित जलवायु परिवर्तन से उसने सामंजस्य स्थापित करने के लिए उसकी जीवन पद्धति में भी बदलाव होना आवश्यक था।
उच्चपाषाण काल तक मानव जीवन मुख्यतः आखेट पर ही निर्भर रहा। आखेट के लिए धनुष-बाण व्यापक पैमाने पर उपयोग होने लगा था। इस काल का मानव पशुओं के शिकार के अलावा मछली, कछुआ आदि जलचरों का शिकार अपनी भूख मिटाने के लिए करता था। हालैण्ड के ' पेस' नामक मध्य पाषाणिक पुरास्थल से लकड़ी की एक डोंगी मिली है जिसकी तिथि 6250 ई.पू. है। अतः हम कह सकते हैं कि लकड़ी की डोंगी का सर्वप्रथम निर्माण का श्रेय मध्य पाषाणिक मानव ने किया था। लेकिन इस काल का मानव जंगली घास एवं वनस्पतियों के बीजों तथा फलों का संचय एवं प्रयोग करने लगा था। इसलिए उसे ' संचयक मानव' कहा जाता है। जो इस काल की विशेष उपलब्धि थी।
भारत के लगभग सभी भू-भागों से मध्य पाषाणिक पुरास्थल प्रकाश में आयें हैं। भारत में मध्य पाषाणिक उपकरणों की खोज ए. से. एल. कार्लाइल महोदय ने 1867ई. में विन्ध्य क्षेत्र में किया था। तब से लेकर आज तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में आते रहे हैं। इस युग में जनसंख्या में बृद्धि हुई। इस जनसंख्या बृद्धि का कारण जीविका की सर्वसुलभता थी। जिसके फलस्वरूप प्रव्रजन एवं स्थानान्तरण हुआ होगा। आवागमन एवं परिभ्रमण से लोग परस्पर मिलते जुलते रहे होंगे। परिणामतः पारस्परिक सांस्कृतिक आदान प्रदान में बृद्धि हुई। सम्भवतः इसी समय लघु सम्प्रदायों का गठन होना प्रारम्भ हुआ। सरायनाहरराय का उत्खनन इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। यहाँ के उत्खनन से प्राप्त साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि स्त्री-पुरूष छोटे-छोटे समुदायों में निवास करते थे। जिससे स्पष्ट होता है कि इस समय तक पारिवारिक जीवन का आरम्भ हो चुका था, क्योंकि सरायनाहरराय के उत्खनन से युगल शवाधान के साक्ष्य मिले हैं। इस युगल शवाधान में एक कब्र से स्त्री और पुरूष एक साथ दफनायें गये हैं। यहाँ से छोटे एवं बड़े आकार के चूल्हे भी उत्खनन में मिले हैं। जो व्यक्तिगत एवं सामूहिक उपयोग में प्रयुक्त होते रहे होंगे। इस काल में आधुनिक संस्कृति के अनेक तत्वों से मानव पहले से ही अवगत रहा क्योंकि प्राप्त कब्रें एक ही दिशा में हैं और दफनाने की विधि भी एक समान है जो उनकी धार्मिकता का द्योतक है।
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